राजनीति में विचारधाराओं में घिसावट और गिरावट – दबंगों, अपराधियों और बाहुबलियों का मोल विदेशी डॉलर जैसा हुआ महंगा 

भारत के प्रधानमंत्री से तुलना किया जा रहा है मुख्यमंत्री के पद का बिहार में,,राजनीति के साथ बदलता आर्थिक स्थिति 

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बिहार में 2025 में होने जा रहा विधानसभा चुनाव से पूर्व लगातार नई पार्टी बन रही है. पार्टी बनाने के कारवां में पॉलिटिकल प्लानर से लेकर आईपीएस ऐसे ओहदे पर रहे अधिकारी शामिल हैं. वहीं पिछले कुछ वर्षो में नीतीश कुमार के साथ राजनीति के मैदान में गोता लगाने वाले भी अपनी अपनी पार्टी बना कर अपनी राह को अलग कर लिया।
{REPORT : ARUN SRIVASTAVA @PMB NEWS}
बात अस्सी से नब्बे (1980 – 1990) के दशक में अपना अस्तित्व बनाने वाले 1974 के जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकले नेता ही हैं, नब्बे (1990) से अब तक राजनीति में सत्ता में बने रहे नेताओं की बात करें तो ये सभी जिस भी राजनीतिक पार्टी से संबंध रखते हों, मिट्टी जैसा कटाव हुआ है, राजनीति और राजनेताओं के विचारधाराओं में घिसावट और गिरावट हुआ है. दबंगो, अपराधियों और बाहुबलियों का मोल विदेशी डॉलर जैसा महंगा किया है. 
भारत के संविधान में, भारतीय नये संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में भले सैकड़ो नियम और प्रावधान हों इन दबंगों बाहुबलियों को दण्डित करने के लिए, पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए परन्तु आज के नेता इस बात को अलग, इनके बगैर चुनावी संग्राम में आगे बढ़ते हीं नहीं।
 
राजनीति के साथ बदलता आर्थिक स्थिति 
अन्य राज्यों के तर्ज पर बिहार में भी सरकारी क्षेत्र में बड़े बड़े ठेका हो या फिर शैक्षणिक संस्थाएं हैं, चिकित्सा केंद्र, अस्पताल है औसतन सभी क्षेत्रों में अधिकांश नेताओं का संरक्ष्ण अथवा भागीदारी अवश्य नजर आता है, ऐसा नहीं है की सूबे के मुखिया मुख्यमंत्री अथवा कानून प्रवर्तन संस्थाएं या वरीय अधिकारी इस बात को नहीं जानते, अधिकारी करें तो क्या करें बिना सकरारी निर्णय के ये एक कदम भी नहीं बढ़ा सकते।
याद करें शायद उनदिनों की बातें पुराने लोगों के ज़ेहन में हो, (1960 – 1970 ) साठ – सत्तर के दशक में प्रदेश के राजनीति में अपराध और अपराधियों के लिए कोई स्थान नहीं था (अपवाद को छोड़ कर) उन दिनों अपराधी नेता को संरक्षण जरूर देना शुरू कर दिया था बूथ कब्जा के लिए, समय के साथ बदलते दशकों में बूथ कब्जाधारी ही खादी धारण कर बनते चले गए नेता।
अपराधी बाहुबलियों के बाद आज धनाढ्य के लिए राजनीति एक पेशा हो गया है, एक व्यवसाय बनता जा रहा है, या यूँ कहें एक स्टार्टअप होते जा रहा है नए कारोबार का. जिसे देखें एक पार्टी बना और फिर कूद गए चुनावी दंगल से पूर्व होने वाले खेलों में. ऐसा नहीं है इसमें सभी नई पार्टी वाले शामिल है, कुछ बड़े पद को त्याग कर बिहार में बढे भ्रस्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए राजनीति के दलदल में कूद जा रहे हैं 
 
बिहार में जीतने के लिए नहीं, हरवाने के लिए बन रही पार्टी, तो क्या CM का बदलेगा चेहरा ?
बिहार में एक तरफ जहां पार्टी पर पार्टी बनता जा रहा है वहीं दूसरी तरफ दिल्ली में जीती के बाद भाजपा ने अपना ध्यान बिहार चुनाव पर केंद्रित कर दिया है. एनडीए के नेता एक बार फिर जीत के प्रति आश्वस्त हैं और अपने शासन रिकार्ड को उजागर करने में लगे हैं जनता के बीच. यही वजह रहा जब देश के इतने बड़े संख्या में अपने लाल को खोया उस दौरान भी प्रधान मंत्री का मधुबनी सभा को रद्द नहीं किया गया. भाजपा 225 से अधिक सीटों का लक्ष्य ले कर बिहार में विधानसभा के चुनावी दंगल में उतरने को तैयार है. इस बड़ी संख्या में भी दबंगों और दागी उम्मीदवार शामिल दिखेंगे NDA में, भले ही मामला न्यायलय में लंबित हो. विपक्ष भी अपने मंसूबे में लगा हुआ है. चारा घोटाला और सृजन घोटाला दोनों तरह से कटाक्ष का दौर भी चलेगा। 
भारत के प्रधानमंत्री से तुलना किया जा रहा है मुख्यमंत्री के पद का बिहार में, दिल्ली सल्तनत में पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी,राजीव गांधी, मोरारजी देसाई,अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर,चरण सिंह, मनमोहन सिंह ऐसे का नाम प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर पट्टिका मे बदल सकता है तो बिहार में क्या नीतीश कुमार का भी बदलेगा ही 2025 में ? ऐसे कई सवालों के बीच बीजेपी खेमा नीतीश कुमार के ही नेतृत्व में चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं
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